जगन्नाथ मन्दिर - Jagannath Mandir

पुरी (Puri) भारत के ओड़िशा राज्य के पुरी ज़िले में बंगाल की खाड़ी से तटस्थ एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। पुरी भारत के चार धाम में से एक है और यहाँ 12वीं शताब्दी के जगन्नाथ मंदिर स्थित होने के कारण इसे श्री जगन्नाथ धाम भी कहा जाता है।

जगन्नाथ मन्दिर - Jagannath Mandir

पुरी का श्री जगन्नाथ मन्दिर एक हिन्दू मन्दिर है, जो भगवान जगन्नाथ (श्रीकृष्ण) को समर्पित है। यह भारत के ओडिशा राज्य के तटवर्ती शहर पुरी में स्थित है। जगन्नाथ शब्द का अर्थ जगत के स्वामी होता है। इनकी नगरी ही जगन्नाथपुरी या पुरी कहलाती है। इस मन्दिर को हिन्दुओं के चार धाम में से एक गिना जाता है। यह वैष्णव सम्प्रदाय का मन्दिर है, जो भगवान विष्णु के अवतार श्री कृष्ण को समर्पित है। इस मन्दिर का वार्षिक रथ यात्रा उत्सव प्रसिद्ध है। इसमें मन्दिर के तीनों मुख्य देवता, भगवान, उनके बड़े भ्राता बलभद्र और भगिनी सुभद्रा तीनों, तीन अलग-अलग भव्य और सुसज्जित रथों में विराजमान होकर नगर की यात्रा को निकलते हैं। श्री जगन्नथपुरी पहले नील माघव के नाम से पुजे जाते थे। जो भील सरदार विश्वासु के आराध्य देव थे। अब से लगभग हजारों वर्ष पुर्व भील सरदार विष्वासु नील पर्वत की गुफा के अन्दर नील माघव जी की पुजा किया करते थे। मध्य-काल से ही यह उत्सव अतीव हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इसके साथ ही यह उत्सव भारत के ढेरों वैष्णव कृष्ण मन्दिरों में मनाया जाता है, एवं यात्रा निकाली जाती है। यह मंदिर वैष्णव परम्पराओं और सन्त रामानन्द से जुड़ा हुआ है। यह गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के लिये खास महत्व रखता है। इस पन्थ के संस्थापक श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान की ओर आकर्षित हुए थे और कई वर्षों तक पुरी में रहे भी थे।

मन्दिर का उद्गम


गंगवंश के हाल ही में अन्वेषित ताम्र पत्रों से यह ज्ञात हुआ है, कि वर्तमान मन्दिर के निर्माण कार्य को कलिंगराजा अनन्तवर्मन चोडगंग देव ने आरम्भ कराया था।। मन्दिर के जगमोहन और विमान भाग इनके शासन काल (१०७८ - ११४८) में बने थे। फिर सन ११९७ में जाकर ओडिआ शासक अनंगभीम देव ने इस मन्दिर को वर्तमान रूप दिया था।

मन्दिर में जगन्नाथ अर्चना सन १५५८ तक होती रही। इस वर्ष अफगान जनरल काला पहाड़ ने ओडिशा पर हमला किया और मूर्तियां तथा मंदिर के भाग ध्वंस किए और पूजा बन्द करा दी, तथा विग्रहो को गुप्त मे चिलिका झील मे स्थित एक द्वीप मे रखागया। बाद में, रामचन्द्र देब के खुर्दा में स्वतन्त्र राज्य स्थापित करने पर, मन्दिर और इसकी मूर्तियों की पुनर्स्थापना हुई।

मन्दिर से जुड़ी कथाएँ


इस मन्दिर के उद्गम से जुड़ी परम्परागत कथा के अनुसार, भगवान जगन्नाथ की इन्द्रनील या नीलमणि से निर्मित मूल मूर्ति, एक अगरु वृक्ष के नीचे मिली थी। यह इतनी चकचौंध करने वाली थी, कि धर्म ने इसे पृथ्वी के नीचे छुपाना चाहा। मालवा नरेश इंद्रद्युम्न को स्वप्न में यही मूर्ति दिखाई दी थी। तब उसने कड़ी तपस्या की और तब भगवान विष्णु ने उसे बताया कि वह पुरी के समुद्र तट पर जाये और उसे एक दारु (लकड़ी) का लठ्ठा मिलेगा। उसी लकड़ी से वह मूर्ति का निर्माण कराये। राजा ने ऐसा ही किया और उसे लकड़ी का लठ्ठा मिल भी गया। उसके बाद राजा को विष्णु और विश्वकर्मा बढ़ई कारीगर और मूर्तिकार के रूप में उसके सामने उपस्थित हुए। किन्तु उन्होंने यह शर्त रखी, कि वे एक माह में मूर्ति तैयार कर देंगे, परन्तु तब तक वह एक कमरे में बन्द रहेंगे और राजा या कोई भी उस कमरे के अन्दर नहीं आये। माह के अंतिम दिन जब कई दिनों तक कोई भी आवाज नहीं आयी, तो उत्सुकता वश राजा ने कमरे में झाँका और वह वृद्ध कारीगर द्वार खोलकर बाहर आ गया और राजा से कहा, कि मूर्तियाँ अभी अपूर्ण हैं, उनके हाथ अभी नहीं बने थे। राजा के अफसोस करने पर, मूर्तिकार ने बताया, कि यह सब दैववश हुआ है और यह मूर्तियाँ ऐसे ही स्थापित होकर पूजी जायेंगीं। तब वही तीनों जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियाँ मन्दिर में स्थापित की गयीं।

चारण परम्परा मे माना जाता है की यहाँ पर भगवान द्वारिकाधिश के अध जले शव आये थे जिन्हे प्राचि मे प्रान त्याग के बाद समुद्र किनारे अग्निदाह दिया गया (किशनजी, बल्भद्र और शुभद्रा तिनो को साथ) पर भरती आते ही समुद्र उफान पर होते ही तिनो आधे जले शव को बहाकर ले गया ,वह शव पुरि मे निकले ,पुरि के राजा ने तिनो शव को अलग अलग रथ मे रखा (जिन्दा आये होते तो एक रथ मे होते पर शव थे इसिलिये अलग रथो मे रखा गया)शवो को पुरे नगर मे लोगो ने खुद रथो को खिंच कर घुमया और अंत मे जो दारु का लकडा शवो के साथ तैर कर आयाथा उशि कि पेटि बनवाके उसमे धरति माता को समर्पित किया, आज भी उश परम्परा को नीभाया जाता है पर बहोत कम लोग इस तथ्य को जानते है, ज्यादातर लोग तो इसे भगवान जिन्दा यहाँ पधारे थे एसा ही मानते है, चारण जग्दम्बा सोनल आई के गुरु पुज्य दोलतदान बापु की हस्तप्रतो मे भी यह उल्लेख मिलता है

मंदिर का ढांचा


मंदिर का वृहत क्षेत्र 400,000 वर्ग फुट (37,000 मी2) में फैला है और चहारदीवारी से घिरा है। कलिंग शैली के मंदिर स्थापत्यकला और शिल्प के आश्चर्यजनक प्रयोग से परिपूर्ण, यह मंदिर, भारत के भव्यतम स्मारक स्थलों में से एक है।

मुख्य मंदिर वक्ररेखीय आकार का है, जिसके शिखर पर विष्णु का श्री सुदर्शन चक्र (आठ आरों का चक्र) मंडित है। इसे नीलचक्र भी कहते हैं। यह अष्टधातु से निर्मित है और अति पावन और पवित्र माना जाता है। मंदिर का मुख्य ढांचा एक 214 फीट (65 मी॰) ऊंचे पाषाण चबूतरे पर बना है। इसके भीतर आंतरिक गर्भगृह में मुख्य देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं। यह भाग इसे घेरे हुए अन्य भागों की अपेक्षा अधिक वर्चस्व वाला है। इससे लगे घेरदार मंदिर की पिरामिडाकार छत और लगे हुए मण्डप, अट्टालिकारूपी मुख्य मंदिर के निकट होते हुए ऊंचे होते गये हैं। यह एक पर्वत को घेर ेहुए अन्य छोटे पहाड़ियों, फिर छोटे टीलों के समूह रूपी बना है।

मुख्य मढ़ी (भवन) एक 20 फीट (6.1 मी॰) ऊंची दीवार से घिरा हुआ है तथा दूसरी दीवार मुख्य मंदिर को घेरती है। एक भव्य सोलह किनारों वाला एकाश्म स्तंभ, मुख्य द्वार के ठीक सामने स्थित है। इसका द्वार दो सिंहों द्वारा रक्षित हैं।

देवता


भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा, इस मंदिर के मुख्य देव हैं। इनकी मूर्तियां, एक रत्न मण्डित पाषाण चबूतरे पर गर्भ गृह में स्थापित हैं। इतिहास अनुसार इन मूर्तियों की अर्चना मंदिर निर्माण से कहीं पहले से की जाती रही है। सम्भव है, कि यह प्राचीन जनजातियों द्वारा भी पूजित रही हो।

जानकारियां - Information
निर्माण कलिंग राजा अनन्तवर्मन चोडगंग देव
द्वारा उद्घाटन
समर्पित भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा
देख-रेख संस्था
फोटोग्राफी नहीं
नि:शुल्क प्रवेश हाँ
समय
पूजा का समय प्रतिदिन प्रातः 5:30 बजे
दर्शन में लगने वाला समय 2-3 घंटे
घूमने का सबसे अच्छा समय अक्टूबर से मार्च के बीच का समय सबसे अच्छा होता है
वेबसाइट www.shreejagannatha.in
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