पुरुषोत्तम मास कथा: अध्याय 30 - Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 30
पुरुषोत्तम मास (Purushottam Maas) कथा के अध्याय 30 में, एक उत्कृष्ट रूप से योग्य और अधिक पुण्यवान व्यक्ति की कथा दी गई है। इस कथा में, एक राजा जिसका नाम 'धर्मबुद्धि' था, अत्यंत साधुवादी और धार्मिक व्यक्ति था। उनके जीवन के बारे में कई महत्वपूर्ण घटनाएं वर्णित की गई हैं जो उनकी आध्यात्मिक उन्नति और धार्मिक नैतिकता को दिखाती हैं। इस कथा के माध्यम से, पाठकों को साधारण मानवीय गुणों और आचरण के महत्व को समझाया जाता है, जो एक उच्च स्तरीय जीवन का प्रेरणादायक उदाहरण प्रस्तुत करता है। इस अध्याय में, राजा धर्मबुद्धि की धार्मिकता, साधुता, और सदाचार की महत्वपूर्ण बातें प्रमुख हैं, जो पाठकों को धार्मिक और नैतिक उन्नति की ओर मार्गदर्शन करती हैं।
नारदजी बोले, 'हे तपोनिधे! तुमने पहले पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा की है अब आप उनके सब लक्षणों को मुझसे कहिये।
सूतजी बोले, 'हे पृथिवी के देवता ब्राह्मणो! इस प्रकार नारद मुनि के पूछने पर स्वयं प्राचीन मुनि नारायण ने पतिव्रता स्त्री के लक्षणों को कहा।
श्रीनारायण बोले, 'हे नारद! सुनो मैं पतिव्रताओं के उत्तम व्रत को कहता हूँ। पति कुरूप हो, कुत्सित व्यवहारवाला हो, अथवा सुरूपवान् हो, रोगी हो, पिशाच हो, क्रोधी हो, मद्यपान करनेवाला हो, मूर्ख हो, मूक हो, अन्धा हो अथवा बधिर हो, भयंकर हो, दरिद्र हो, कुपण हो, निन्दित हो, दीन हो, अन्य स्त्रियों में आसक्त हो। परन्तु सती स्त्री सदा वाणी, शरीर, कर्म से पति का देवता के समान पूजन करे। कभी भी स्त्री पति के साथ कठोर व्यवहार नहीं करे।
बाला हो, युवती हो अथवा वृद्धा हो परन्तु स्त्री स्वतन्त्रतापूर्वक अपने गृह में भी कुछ कार्य को नहीं करे। अहंकार और काम-क्रोध का सर्वदा त्याग कर पति के मन को सदा प्रसन्न करती रहे और दूसरे के मन को कभी भी प्रसन्न नहीं करे। जो स्त्री दूसरे पुरुष से कामना सहित देखी जाने पर, प्रिय वचनों से प्रलोभन देने पर अथवा जनसमुदाय में स्पर्श होने पर विकार को नहीं प्राप्त होती है, तो स्त्रियों के शरीर में जितने रोम होते हैं उतने हजार वर्ष तक यह स्त्री स्वर्ग में वास करती है।
दूसरे पुरुष के धन के लोभ देने पर जो स्त्री पर-पुरुष का मन, वचन, कर्म से सेवन नहीं करती है तो वह स्त्री लोक में भूषण और सती कही गई है। दूती के प्रार्थना करने पर भी, बलपूर्वक पकड़ी जाने पर भी, वस्त्र-आभूषण आदि से आच्छादित होने पर भी, जो स्त्री अन्य पुरुष की सेवा नहीं करती है तो वह सती कही जाती है। जो दूसरे से देखी जाने पर नहीं देखती है और हँसाई जानेपर भी हँसती नहीं है, बात करने पर बोलती नहीं है वह उत्तम लक्षण वाली प्रतिव्रता स्त्री है।
रूप यौवन से युक्त और गाने-नाचने में होशियार होने पर भी अपने अनुरूप पुरुष को देखकर विकार को नहीं प्राप्त होती है वह स्त्री सती है। सुरूपवान्, जवान, मनोहर कामिनियों का प्रिय ऐसे पर-पुरुष के मिलने पर भी जो स्त्री इच्छा नहीं करती है तो वह महासती कही गयी है।
पतिव्रताओं को पति के सिवाय दूसरा देवता, मनुष्य, गन्धर्व भी प्रिय नहीं होता, इसलिए स्त्री अपने पति का अप्रिय कभी नहीं करे। जो पति के भोजन करने पर भोजन करती है, दुःखित होने पर दुःखित होती है, प्रसन्न होने पर प्रसन्न होती है, परदेश जाने पर मैला वस्त्र को पहनती है, जो पति के सो जाने पर सोती है और पहले जागती है, पति के मरने पर अग्नि में प्रवेश करती है, जो दूसरे को चित्त से नहीं चाहती है वह पतिव्रता स्त्री है। सास, श्वसुर में भक्ति करती है और विशेष करके पति में भक्ति करती है, धर्म कार्य में अनुकूल रहती है, धन-संचय में अनुकूल, गृह के कार्य में प्रतिदिन तत्पर रहने वाली है।
खेत से, वन से, ग्राम से पति के आने पर स्त्री उठकर आसन और जल देकर प्रसन्न करे, नित्य प्रसन्नमुख रहे, समय पर भोजन देवे, भोजन करते समय कभी भी खराब वाणी नहीं कहे, गृह में प्रधान स्त्री सदा आसन, भोजन, दान, सम्मान, प्रिय भाषण में तत्पर रहे, गृह के खर्च के लिये स्वामी ने जो धन दिया है उससे घर के कार्य को करके बुद्धिपूर्वक कुछ बचा लेवे, दान के लिये दिये हुए धन में से लोभ करके, कुछ कोरकसर नहीं करे और बिना पति की आज्ञा के अपने बन्धुओं को धन नहीं देवे, दूसरे के साथ बातचीत, असन्तोष, दूसरे पुरुष के व्यापार की बातचीत, अत्यन्त हँसना, अत्यन्त रोष और क्रोध को पतिव्रता स्त्री छोड़ देवे, पति जिस वस्तु का पान नहीं करता है, जिस वस्तु को खाता नहीं है, जिस वस्तु का भोजन नहीं करता है उन सब वस्तुओं का पतिव्रता स्त्री त्याग करे, तैल लगाना, स्नान, शरीर में उबटन लगाना, दाँतों की शुद्धि, पतिव्रता स्त्री पति की प्रसन्नता के लिये करे।
हे मुने! त्रेतायुग से स्त्रियों को प्रतिमास रजोदर्शन होता है उस दिन से तीन दिन त्याग कर गृहकार्य के लिये शुद्ध होती है। प्रथम दिन चाण्डाली है, दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी है, तीसरे दिन रजकी है। चतुर्थ दिन शुद्ध होती है।
स्नान, शौच, गाना, रोदन, हँसना, सवारी पर चढ़ना, मालिश, स्त्रियों के साथ जूआ खेलना, चंदनादि लगाना, विशेष करके दिन में शयन, दातुन करना, मानसिक अथवा वाचिक मैथुन करना, देवता का पूजन करना, देवताओं को नमस्कार रजस्वला स्त्री नहीं करे। रजस्वला का स्पर्श और उसके साथ बातचीत नहीं करे। रजस्वला तीन रात तक अपने मुख को नहीं दिखाये। जब तक शुद्धिस्नान नहीं करे तब तक अपने वचनों को नहीं सुनावे। रजस्वला स्त्री स्नान कर दूसरे पुरुष को नहीं देखे, सूर्यनारायण को देखे, बाद पंचगव्य का पान करे। अपनी शुद्धि के लिये केवल पंचगव्य अथवा दूध का पान करे। श्रेष्ठ स्त्री कहे हुए नियम में स्थित रहे।
यदि स्त्री गर्भवती हो जाय तो नियम में तत्पर रहे, वस्त्र-आभूषण अलंकार आदि से अलंकृत रहे और पति के प्रिय करने में यत्न्पूर्वक तत्पर रहे। प्रसन्नमुख रहे, अपने धर्म में तत्पर रहे और शुद्ध रहे, अपनी रक्षा कर विभूषित रहे और वास्तुपूजन में तत्पर रहे। खराब स्त्रियों के साथ बातचीत न करे, सूप की हवा शरीर में नहीं लगे, मृतवत्सा आदि का संसर्ग, दूसरे के यहाँ भोजन गर्भवती स्त्री नहीं करे। भद्दी चीज को नहीं देखे, भयंकर कथा को नहीं सुने, गरिष्ठ और अत्यन्त उष्ण भोजन नहीं करे और अजीर्ण न हो ऐसा भोजन करे। इस विधि से रहने पर पतिव्रता स्त्री श्रेष्ठ पुत्र को प्राप्त करती है, अन्यथा गर्भ गिर जाय, अथवा स्तम्भन हो जाय।
अपने गुणों से हीन दूसरी सौत की निन्दा नहीं करे, ईर्ष्या, राग से होनेवाले मत्सरता आदि के होने पर भी सौत स्त्री परस्पर में अप्रिय वचन नहीं कहे, दूसरे के नाम का गान न करे और दूसरे की प्रशंसा नहीं करे, पति से दूर वास नहीं करे, किन्तु पति के समीप में वास करे और पति के कहे हुए स्थान में, पृथिवी पर पति के सामने मुख करके वास करे। स्वतन्त्रता पूर्वक दिशाओं को न देखे और दूसरे पुरुष को नहीं देखे। विलास पूर्वक पति के मुखकमल को देखे, पति से कही जाने वाली कथा को आदर पूर्वक स्त्री श्रवण करे। पति के भाषण के समय स्वयं स्त्री बातचीत नहीं करे, रति में उत्कण्ठा वाली स्त्री पति के बुलाने पर, शीघ्र रतिस्थान को जाय। पति के उत्साह पूर्वक गाने के समय स्त्री प्रसन्नचित्त से श्रवण करे, गाते हुये पति को देख कर स्त्री आनन्द में मग्न हो जावे, पति के समीप व्यग्र (चंचल) चित्त से व्याकुल हो नहीं बैठे, कलह के योग्य होने पर भी पति के साथ स्त्री कलह न करे। पति से भर्त्सित होने पर, निन्दा की जाने पर, ताड़ित होने पर भी पतिव्रता स्त्री व्यथित (दुःखित) होने पर भी भय छोड़ कर पति को कण्ठ से लगावे, ऊँचे स्वर से रोदन न करे और पति को कोसे नहीं स्त्री अपने गृह से बाहर भाग कर न जाय, यदि बन्धुओं के यहाँ उत्सव आदि में जाय तो पति की आज्ञा को लेकर और अध्यक्ष (रक्षक) से रक्षित होकर जाय और वहाँ अधिक समय तक वास न करे, पतिव्रता स्त्री अपने घर को लौट आवे।
पति के विदेशयात्रा के समय अमंगल वचन को न बोले, निषेध वचन से मना न करे और उस समय रोदन न करे। पति के देशान्तर जाने पर नित्य उबटन न लगावे और जीवन रक्षा के लिये स्त्री निन्दित कर्म को न करे। श्वसुर-सास के पास शयन करे, अन्यत्र शयन न करे और प्रतिदिन प्रयत्नोपूर्वक पति के समाचार की खोज लेती रहे। पति के कल्याण समाचार मिलने के लिये दूत को भेजे और प्रसिद्ध देवताओं के समीप मांगलिक याचना करे। पति के परदेश जाने पर पतिव्रता इस प्रकार के कार्यों को करे। अंगों को न धोना, मलिन वस्त्र को धारण करना, तिलक न लगाना, आँजन न लगाना, सुगन्धित पदार्थ माला आदि का त्याग, नख, बाल का संस्कार न करना, दाँतों में मिस्सौ आदि नहीं लगाना, ऊँचे स्वर से हँसना, दूसरे से हँसी, दूसरे की चाल व्यवहार का विशेष रूप से चिन्तन करना, स्वच्छन्द भ्रमण करना, दूसरे पुरुष के अंगों का मर्दन करना, एक वस्त्र से घूमना, लज्जा रहित (उतान) होकर चलना, इत्यादि दोष स्त्रियों को अत्यन्त दुःख देने वाले कहे गये हैं।
गृह में कार्यों को करके हरदी लेपन से और शुद्ध जल से शरीर को शुद्ध कर स्वच्छ श्रृंगार को करे। खिले हुए कमल के समान प्रसन्न मुख होकर पति के समीप जाय, स्त्री के इस व्यवहार से युक्त और मन, वचन, शरीर से युक्त स्त्री पति से बुलाई जाने पर गृह के कार्यों को छोड़कर शीघ्र पति के पास जाय और कहे कि हे स्वामिन्! किस लिये बुलाया है कृपा पूर्वक कहें। द्वार पर अधिक समय तक खड़ी न होवे। द्वार का सेवन न करे, स्वामी से मिली हुई चीज दूसरे को कभी न देवे, पति के उच्छिष्ट मीठा, अन्न, फल आदि को यह महाप्रसाद है यह कहकर निरन्तर प्रसन्न रहे, सुख से सोये, सुख से बैठे, स्वेच्छा से रमण करते हुए और आतुर कार्यों में पति को नहीं उठावे, अकेली कहीं न जाय, नग्न होकर स्नान न करे, पति से द्वेष करने वाली स्त्री को पतिव्रता न समझे।
उलूखल, मूसल झाड़ू, पत्थर, यन्त्र, देहली पर पतिव्रता कभी भी न बैठे। तीर्थ में स्नान की इच्छा करने वाली स्त्री पति के चरणजल को पीवे, स्त्री के लिये शंकर से भी अथवा विष्णु भगवान् से भी अधिक पति ही कहा गया है।
जो स्त्री पति का वचन न मानकर व्रत उपवास नियमों को करती है वह पति के आयुष्य का हरण करती है और मरने के बाद नरक को जाती है। किसी कार्य के लिये कहीं जाने पर, जो स्त्री क्रोध कर पति के प्रति जवाब देती है वह ग्राम में कुतिया होती है और निर्जन वन में सियारिन होती है।
स्त्रियों के लिये एक ही उत्तम नियम कहा गया है कि स्त्री सदा पति के चरणों का पूजन करके भोजन करे। जो स्त्री पति का त्याग कर अकेली मिठाई खाती है वह वृक्ष के खोंड़रे में सोने वाली क्रूर उलूकी होती है। जो स्त्री पति का त्याग कर अकेली एकान्त में फिरती है वह ग्राम में सूकरी होती है अथवा अपनी विष्ठा को खाने वाली गोह होती है। जो स्त्री पति को हुँकार कह कर अप्रिय वचन बोलती है वह मूक अवश्य होती है, जो अपनी सौत के साथ सदा ईर्ष्या करती है वह दूसरे जन्म में दुर्भगा होती है। जो स्त्री पति की दृष्टि बचा कर किसी दूसरे पुरुष को देखती है वह कानी होती है अथवा विमुखी और कुरूपा होती है।
जो स्त्री पति को बाहर से आया हुआ देखकर जल्दी से जल, आसन, ताम्बूल, व्यंजन, पैर को दबाना आदि, अत्यन्त प्रिय वचनों से पति की सेवा करती है वह स्त्री पतिव्रताओं में शिरोरत्न के समान पण्डितों से कही गई है। पति देवता हैं, पति गुरु हैं, पति धर्म तीर्थ व्रत है, इसलिये सबका त्याग कर एक पति का ही पूजन करे।
जिस तरह जीव से हीन देह क्षण भर में अशुचि हो जाता है उसी प्रकार पति से हीन स्त्री अच्छी तरह स्नान करने पर भी सदा अपवित्र है। सब अमंगल वस्तुओं की अपेक्षा विधवा स्त्री अत्यन्त अमंगल है, विधवा स्त्री के दर्शन से कभी भी कार्य-सिद्धि नहीं होती है। आशीर्वाद को देने वाली एक माता को छोड़ कर दूसरी स्त्री के आशीर्वाद को भी सर्प के समान त्याग देवे।
ब्राह्मण लोग विवाह के समय कन्या से इस प्रकार कहलाते हैं कि पति के जीवित तथा मृत दशा में सहचारिणी हो। इसलिये अपनी छाया के समान पति का अनुगमन करना चाहिये। इस प्रकार पतिव्रता स्त्री को भक्ति से सदा पति के अनुकूल होकर रहना चाहिये।
जिस प्रकार सर्प को पकड़ने वाला बलपूर्वक बिल से सर्प को निकाल लेता है उसी प्रकार सती स्त्री यमदूतों से छुड़ा कर पति को स्वर्ग ले जाती है। यमराज के दूत दूर से ही पतिव्रता स्त्री को देखकर पापकर्म करने वाले भी उसके पतित पति को छोड़कर भाग जाते हैं। जितनी अपने शरीर में रोम की संख्या है उतने दश कोटि वर्ष पर्यन्त पतिव्रता स्त्री पति से साथ रमण करती हुई स्वर्ग सुख को भोगती है।
दुष्ट व्यवहार वाली स्त्रियाँ शील का नाश कर दोनों कुलों को डुबा देती हैं और इस लोक में तथा परलोक में दुःखित रहती हैं। यदि दैववश पति के पीछे पति का अनुगमन नहीं करती हैं तो उस दशा में भी शील की रक्षा करनी चाहिये, क्योंकि शील को तोड़ने से नरकगामिनी होती है। स्त्री-दोष से पिता और पति स्वर्ग से गिर जाते हैं। विधवा स्त्री का कबरीबन्धन पति के बन्धन के लिये होता है।
विधवा स्त्री सर्वदा शिर के बालों को मुड़ा देवे, एक बार भोजन करे, कभी भी दूसरी बार भोजन नहीं करे। खाट पर सोने वाली विधवा स्त्री अपने पति को नीचे गिरा देती है इसलिये पति के सुख के लिये पृथिवी पर सोवे। अंगों में उबटन नहीं लगावे और ताम्बूल को न खाय, सुगन्ध का सेवन विधवा न करे। प्रतिदिन कुश तिल जल से पति का तर्पण करे और पति के पिता का तथा उनके पिता का नाम गोत्र कहकर तर्पण करे। सदा श्वेत वस्त्र धारण करे ऐसा न करने से रौरव नरक को जाती है। इस प्रकार नियमों से युक्त विधवा स्त्री पतिव्रता है।
श्रीनारायण बोले, 'लोकों में तथा देवताओं में पति के समान कोई देवता नहीं है। जब पति प्रसन्न होते हैं तो समस्त मनोरथों को प्राप्त करती है। यदि पति कुपित होते हैं तो समस्त कामनायें नष्ट हो जाती हैं। उस पति से सन्तान, विविध प्रकार के भोग, शय्या, आसन, अद्भुत प्रकार के भोजन, वस्त्र, माला, सुगन्धित पदार्थ और इस लोक तथा स्वर्ग लोक में विविध प्रकार के यश मिलते हैं।
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये त्रिंशोऽध्यायः ॥३०॥