दशामाता व्रत (या दशा माता व्रत) मुख्यतः गुजरात, राजस्थान और मध्य भारत में महिलाओं द्वारा किया जाने वाला एक पवित्र व्रत है। यह व्रत परिवार की सुख-समृद्धि, दसों दिशाओं की रक्षा, और सद्भाग्य की प्राप्ति के लिए किया जाता है।इस व्रत में “दशा माता” की पूजा की जाती है, जिन्हें दसों दिशाओं की रक्षा करने वाली देवी माना जाता है।
यह व्रत आषाढ़ मास की अमावस्या को किया जाता है। व्रत करने वाले को प्रातः स्नान करके कथा सुननी चाहिए और दस दिन तक नकोर्दा का व्रत रखना चाहिए, यदि यह संभव न हो तो एक ही व्रत रखना चाहिए। मिट्टी का घड़ा बनाकर उसकी पूजा करनी चाहिए। दशामा के दिन इस घड़े को जल में विसर्जित कर देना चाहिए। पाँच वर्ष पूरे होने पर इस व्रत का उद्यापन करना चाहिए। उत्सव में चाँदी का घड़ा बनाकर किसी योग्य ब्राह्मण को दान करना चाहिए।
Importance of Dasha Mata Vrat – दशामाता व्रत का महत्व
- दसों दिशाओं की रक्षा करती हैं दशामाता।
- पति, संतान व परिवार की सुख-शांति के लिए श्रेष्ठ व्रत।
- आर्थिक तंगी, कर्ज और व्यापारिक समस्याओं से मुक्ति दिलाती हैं।
- नज़र दोष और बुरी शक्तियों से रक्षा होती है।
- खेती, व्यापार व पशुधन की वृद्धि में सहायक।
- मानसिक शांति और आत्मबल बढ़ाता है।
- सामाजिक और पारिवारिक एकता को मजबूत करता है।
Rules of Dashmata Vrat – दशामाता व्रत के नियम
व्रत का दिन:
यह व्रत विशेष रूप से गुरुवार (बृहस्पतिवार) को किया जाता है। कुछ क्षेत्रों में लगातार 5 या 7 गुरुवार तक व्रत रखा जाता है।
व्रतधारी:
व्रत मुख्य रूप से महिलाएं करती हैं, लेकिन पुरुष भी कर सकते हैं।
सुबह स्नान कर पीले वस्त्र पहनें:
स्नान के बाद शुद्ध होकर पीले रंग के वस्त्र धारण करें क्योंकि यह दिन बृहस्पति देव और माता का होता है।
घर की साफ-सफाई करें:
विशेष रूप से रसोई और पूजा स्थान को स्वच्छ करें।
व्रत में अन्न का त्याग:
कुछ लोग उपवास करते हैं (फलाहार या केवल जल), तो कुछ लोग एक समय भोजन करते हैं – बिना लहसुन-प्याज का।
पूजन सामग्री:
- पीला फूल, हल्दी, चावल, दीपक, जल कलश
- दशामाता की राखड़ी (धागा)
- मिट्टी की गाय/धोबी के पत्थर का प्रतीक (यदि संभव हो)
दशामाता की पूजा व कथा श्रवण:
माता की पूजा कर “दशामाता व्रत कथा” पढ़ें या सुनें। कथा के अंत में आरती करें और राखड़ी को घर के दरवाजे गाय के सींग, या हाथ में बांधें।
विवाद या कठोर शब्द से बचें:
व्रत के दिन मन, वाणी और आचरण को शुद्ध रखें। झगड़ा या अपशब्द नहीं बोलें।
दान-दक्षिणा दें:
व्रत पूर्ण होने पर ब्राह्मण या जरूरतमंदों को पीली वस्तुएं (चना, वस्त्र, हल्दी, आदि) का दान करें।
व्रत की समाप्ति:
अंतिम गुरुवार को व्रत उद्यापन (समापन विधि) से समाप्त करें — विशेष पूजन, भोजन और कन्याओं को आमंत्रित कर भोजन कराएं।
Dashamata Mantra – दशामाता मंत्र
मुख्य व्रत संकल्प मंत्र:
ॐ नमो दशामाते सर्वमंगलप्रदायै नमः। गृहकल्याणं कुरु कुरु स्वाहा।
दशामाता पूजा के समय बोलने वाला मंत्र:
ॐ दशमाते नमः। सर्वदुःखनिवारिण्यै नमः। रक्षां कुरु मे कुलं च।
राखड़ी बाँधते समय का मंत्र:
रक्षे रक्षे दशामाते, सुख-समृद्धि दे तू साते। भक्ति भाव से बाँधी राखी, रक्षा करना तू जननी साची।
जप करने योग्य बीज मंत्र (ध्यान, जप या ध्यान मुद्रा में उपयोग करें):
ॐ दशमाते नमः।
Dashamata Vrat – दशामाता व्रत
आषाढ़ मास आया। दशामा का दिन आया। गाँव की स्त्रियाँ एकत्र होकर दशामा व्रत करने के लिए नदी में स्नान करने गईं। नदी के किनारे राजा का महल था। मंडप में बैठी रानी ने उन स्त्रियों को देखा। उसने अपनी दासी को बुलाकर कहा, “जाओ, देखो ये स्त्रियाँ वहाँ क्या कर रही हैं?”
दासी तुरंत नदी के किनारे गई और बोली, “बहनों! तुम सब यहाँ क्या कर रही हो?”
एक स्त्री बोली, “बहन! हम दशामा का व्रत कर रही हैं।”
दासी ने पूछा, “यह व्रत कैसे किया जाता है?”
एक स्त्री ने बताया, “दस धागे लो, उनमें दस गाँठें लगाओ और उन गाँठों को एक थैली में काँटे से बाँध दो।”
दासी ने फिर पूछा, “इस व्रत से क्या लाभ होता है?”
वह स्त्री बोली, “इस व्रत को करने से दरिद्रों को धन, ऐश्वर्य और संतान सुख की प्राप्ति होती है।”
दासी ने सारी बातें जाकर रानी को बताईं। रानी व्रत से प्रभावित हुई और उसने मन ही मन निश्चय किया कि वह स्वयं दशामा व्रत करेगी।
रात को रानी ने राजा से व्रत करने की बात कही। राजा ने व्रत करने से साफ़ इनकार कर दिया और कहा, “तुम्हें और किस चीज़ की कमी है? तुम्हारे पास धन है, सुख है, राजपद है, संपत्ति है, फिर यह व्रत क्यों करना?”
राजा के ऐसे अहंकारपूर्ण वचनों से रानी को क्रोध आया। वह बिना खाए-पिए सो गई।
राजा के इन शब्दों से दशामाता क्रोधित हो गईं। उन्होंने पूरे राज्य का चक्कर लगाया। सुबह-सुबह राज्य में अफरा-तफरी मच गई। गोदाम खाली हो गए, अन्न भंडार समाप्त हो गए, और प्रजा दुखी हो गई।
राजा और रानी हाथ में हाथ डाले चल रहे थे। चलते-चलते वे गाँव के पास एक बगीचे में पहुँचे। थकान से वे वहीं विश्राम करने लगे। तभी बगीचे के सभी फूल मुरझा गए।
राजा, रानी और उनके दो पुत्र वहाँ से आगे बढ़े और रानी की सहेली के घर पहुँचे। राजकुमार भूखे थे, तो रानी ने सहेली से भोजन माँगा। सहेली ने तिरस्कार करते हुए कहा, “चले जाओ, गंदे भिखारी! क्या मेरे घर में रोटी माँगने में शर्म नहीं आती?”
वे वहाँ से चल दिए और आगे एक तालाब मिला। दोनों पुत्र बहुत प्यासे थे, तो पानी पीने तालाब पर गए, तभी दशामाता ने उन्हें तालाब में खींच लिया।
राजा और रानी चिंतित हुए। राजा को निश्चय हो गया कि यह दशामा व्रत का अनादर करने का परिणाम है।
वे चलते-चलते अपनी बहन के गाँव पहुँचे। राजा ने बहन को संदेश भेजा और स्वयं मिलने पहुँचे। बहन ने सोचा कि ज़रूर कोई विपत्ति आई है, वरना भाई बिना हाथी, रथ, घोड़े के नहीं आता।
उसने एक सुखड़ी बनाई और एक सोने की जंजीर घड़े में रखकर भाई को भेज दी। परंतु जब राजा ने घड़ा खोला, तो उसमें सुखड़ी के स्थान पर ईंट के टुकड़े थे और जंजीर साँप बन गई थी।
राजा समझ गया कि यह दशामाता का प्रकोप है। उसने वह घड़ा वहीं ज़मीन में गाड़ दिया और आगे बढ़ गया।
आगे एक नदी के किनारे धान के खेत थे। रानी ने एक किसान से खाने के लिए थोड़ा धान माँगा। किसान ने एक बाल धान का तोड़कर दे दिया। लेकिन सूर्यास्त हो चुका था, और नियम था कि वे सूर्यास्त के बाद नहीं खाते, तो उन्होंने उसे दालान में छिपा दिया और सो गए।
उसी समय वहाँ कुछ सैनिक आए, जो किसी राजकुमार की तलाश कर रहे थे। उन्होंने दालान में कुछ छिपा हुआ देखा और रानी से पूछा, “बहन! यह क्या है?”
रानी बोली, “भाई! यह तो एक काँटा है।”
सैनिकों ने उसे बाहर निकालने को कहा। जैसे ही रानी ने काँटा निकाला, वह चाकू बन गया और उस पर राजकुमार का सिर प्रतीत हुआ।
सैनिकों ने उसे राजा के बेटे की हत्या का दोषी मानकर बाँध दिया और अपने राजा के पास ले गए। राजा ने भी बिना जाँच के उन्हें कारागार में डाल दिया।
कारावास में रानी ने सोचा, “हमारी यह दशा दशामा व्रत के अपमान के कारण हुई है।” अतः रानी ने जेल में ही दशामा व्रत करना प्रारंभ कर दिया।
दस दिनों तक व्रत रखा और दसवें दिन मिट्टी की साड़ी बनाकर मधुर स्वर में देवी की स्तुति की। रानी की भक्ति से दशामाता प्रसन्न हुईं और नगर के राजा के स्वप्न में प्रकट होकर कहा, “हे राजन! जिन राजा-रानी को तुमने कैद किया है, वे निर्दोष हैं। उन्हें छोड़ दो। तुम्हारा दूल्हा सुबह लौट आएगा।”
सुबह राजा ने देखा कि उसका पुत्र लौट आया है। उसने तुरन्त राजा-रानी को मुक्त किया, क्षमा माँगी, उन्हें वस्त्र दिए और सम्मानपूर्वक विदा किया।
वापसी में वे अपनी बहन के गाँव पहुँचे। राजा ने वह घड़ा खोदा, तो उसमें अब सुंदर हार और सोने की जंजीर निकली।
राजा उसे लेकर तालाब पहुँचा। वहाँ दशामाता अपने दोनों पुत्रों के साथ खड़ी थीं। राजा-रानी ने अपने पुत्र उन्हें सौंप दिए।
राजा ने पूछा, “ये पुत्र तुम्हें कहाँ से मिले?”
दशामाता ने अपने दिव्य रूप में प्रकट होकर कहा, “अब तुम्हारा समय अच्छा आ गया है। व्रत की महिमा समझो और अपना राज्य सँभालो।”
राजा-रानी ने उनके चरणों में गिरकर क्षमा माँगी और वहाँ से चल दिए।
रास्ते में राजा की बहन ने उन्हें देखा और गले लगाकर कहा, “बहन! अब तो बहुत दिन हो गए, मैं तुम्हें जाने नहीं दूँगी।”
रानी बोली, “जब मैं संकट में थी, तब तुमने हमें रोटी का टुकड़ा तक नहीं दिया। अब हम यहाँ नहीं रहेंगे।”
वहाँ से वे आगे बढ़े और गाँव के पुजारी वहाँ पहुँचे। उनके आते ही बगीचा फिर से हरा-भरा हो गया। गाँव वालों ने राजा-रानी का स्वागत किया और खुशी-खुशी उन्हें उनके राज्य ले गए।
राज्य फिर से समृद्ध हो गया। राजा-रानी ने पाँच वर्षों तक दशामा का व्रत विधिपूर्वक किया और उसका पारण किया।
जय दशामा माता! जैसी कृपा आपने राजा-रानी पर की, वैसी कृपा सभी व्रतधारियों पर करें।